9.10.08

झूठमूठ काहे ललचाई

डा॰ अशोक द्विवेदी
झूठमूठ काहे ललचाई
जवन जुरी-आँटी
ऊ खाई!
रार बेसाहे खातिर होता
ऊँच-नीच के बात
दूभर होत जात बा दिन अब
खदकावत बा रात.
भारी लउके सब, सबका पर,
सेर सभे
आ सभे सवाई!
नवहन के, ना बाग अड़ाला -
गलते सही बुझाव.
छोट छोट बतियो में होखे
रोजे कुकुरबझाव.
के टोकी, आ के समझाई ?
के आपन मूड़ी कुँचवाई!
मानत बानीं, सबुर करे के
गइल जमाना पाछे.
बाकिर नट्टिन राजनीति
माया फइला के नाचे.
लट्टू हो के हाव-भाव पर
इहाँ-उहाँ अब
के छिछियाई !
कान ना दिहलस अपने जामल
बेटा भल अमान.
मिठबोलियन का दाँव-पेंच से
बा अबहीं अनजान.
कहलीं ओसे, कई बेर हम
तृष्ना में
ई जनवो जाई!
अंदेसा में ऊँच-नीच के
जिउवा बहुत डेराय.
घर से निकलल भइल कठिन
अब, काँटे रोज रुन्हाय.
राह‍घाट में, बात बात में
कहवाँ कहवाँ
का फरियाई!
जवन जुरी आँटी
ऊ खाई!!
अंजोरिया से साभार

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